बौद्ध धर्म को हम मानवीय धर्म कह सकते हैं, क्योंकि बौद्ध धर्म ईश्वर को नहीं, मनुष्य को महत्व देता है। भगवान बुद्ध
ने अहिंसा की शिक्षा के साथ ही अपने धर्म के अंग के तौर पर सामाजिक, बौद्धिक, आर्थिक, राजनैतिक स्वतंत्रता एवं समानता की शिक्षा दी है। उनका मुख्य ध्येय
इंसान को इसी धरती पर इसी जीवन में विमुक्ति दिलाना था, न कि मृत्यु के बाद स्वर्ग प्राप्ति
का काल्पनिक वादा करना।
बुद्ध ने साफ कहा
था कि उनका उपदेश स्वयं उनके विचार पर आधारित है, उसे दूसरे तब स्वीकार करें, जब वे उसे अपने विचार और अनुभव से सही पाएं। जिस प्रकार एक सुनार
सोने की परीक्षा करता है, उसी प्रकार मेरे उपदेशों की परीक्षा करनी चाहिए। दूसरे किसी भी
धर्म संस्थापक ने कभी यह बात नहीं की।
यही कारण है कि डॉ अम्बेडकर . ने दूसरे किसी धर्म को न अपना कर बौद्ध धर्म का ही चुनाव किया। डॉ. अम्बेडकर के अनुसार बौद्ध धर्म नैतिकता पर आधारित, विज्ञान से संबंध रखने वाला धर्म है। फिर भी हम यदि बौद्ध ग्रंथों में कोई विवरण आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान के विरुद्ध पाते हैं तो बौद्ध होने के नाते हम उसे अस्वीकार करने के लिए स्वतंत्र हैं। ऐसी स्वतंत्रता अन्य किसी भी धर्म में नहीं है।
डॉ. अम्बेडकर के अनुसार धर्म प्रत्येक समाज के लिए नैतिकता का निर्धारक तत्व होता है और उस समाज में अनुशासन बनाए रखने के लिए धम्म की कुछ शर्तें पूरी करनी होती है, जिसे विज्ञान सम्मत या बुद्धिसंगत होना चाहिए, साथ ही उसे स्वतंत्रता समता और बंधुत्व के मूलभूत तत्वों को मान्य करना चाहिए और उसे गरीबी का समर्थन नहीं करना चाहिए।डॉ. आम्बेडकर के अनुसार बौद्ध धर्म उक्त सभी कसौटियों पर खरा उतरता है। यद्यपि बौद्ध धर्म बहुत ही प्राचीन धर्म है और अपने ढाई हजार वर्षों की अवधि में अनेक उतार-चढ़ाव से वह गुजरा है, जिसका कुछ समय के लिए तेजी से अवनति हुई, किंतु बाबा साहेब द्वारा सामुदायिक धम्म स्वीकार आंदोलन के बाद भारत में यह तेजी से प्रसारित हुआ है। इस आंदोलन ने हम दलितों को मनुष्य का दर्जा दिलाया है, जिससे हम कई तरह से स्वतंत्रता का अनुभव कर रहे हैं।
इस धम्मक्रांति के कई वर्षों बाद भी
जो समस्याएं हैं, उसका कारण है कि हम ये समझ ही नहीं पाए हैं कि डॉ. अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म ही क्यों चुना? इसी तरह सामूहिक धर्म परिवर्तन के
आंदोलन के महत्व को समझने में हमारी असफलता रही है, साथ ही इस आंदोलन को हम उस विशाल दृष्टिकोण से देख ही नहीं पाते, समझ ही नहीं पाते और यही कारण है कि
हम अपने दायरे से ऊपर किसी महान कार्य करने की भावना से प्रेरित नहीं हो पाते
इसलिए धर्म क्रांति के कार्य करने के बारे में विचार नहीं करते, उल्टे हम बहुत ही संकीर्ण विचार से
व्यक्तिगत मामलों में ही उलझे रहते हैं।
एक प्रश्न है, जिसका उत्तर प्रत्येक धर्म को अवश्य
देना चाहिए कि शोषितों को पैरों तले कुचले लोगों के लिए वह किस तरह की मानसिक और
नैतिक राहत पहुंचाता है? क्या हिन्दू धर्म पिछड़े वर्गों और अछूत जातियों, जनजातियों के करोड़ों लोगों को कोई
मानसिक और नैतिक राहत पहुंचाता है? तय है ऐसा नहीं है।
वर्तमान का समय बौद्ध धर्म के
प्रचार-प्रसार के लिए बिल्कुल अनुकूल दिखाई देता है। एक समय था, जब धर्म के गुण और अवगुणों की परख
करने का सवाल ही नहीं उठता था, इसलिए धर्म आदमी के उत्तराधिकार का अंग हुआ करता था, जो पैतृक संपत्ति प्राप्त करने योग्य
भी है कि नहीं का प्रश्न तो उठाया करते थे, लेकिन ऐसा कोई उत्तराधिकारी नहीं था जो यह प्रश्न करता कि क्या
उसके माता-पिता का धर्म अपनाने योग्य है?
लगता है अब समय बदल चुका है। संसार भर
में अब बहुत से लोगों में उत्तराधिकार में पाए जाने वाले धर्म के बारे में प्रश्न
करने का अद्भुत साहस दिखाया है, जिसके लिए कारण चाहे जो भी हो, यह सत्य है कि धर्म के बारे में लोगों के मन में जांच-पड़ताल करने
की भावना पैदा हो चुकी है, इसलिए कौन सा धर्म अपनाने योग्य है, इस पर साहसपूर्वक प्रश्न किया जाने लगा है।
ऐसी
स्थिति में बौद्ध या बौद्ध राष्ट्रों को चाहिए कि बुद्ध धर्म
का प्रचार-प्रसार करना अपना कर्तव्य मानते हुए यह मानना ही होगा कि नैतिकता का
धर्म बौद्ध धर्म का प्रसार करना ही वास्तविक मानवता की सेवा करना है।
How does one become bhagwaan if he is not recognizing god consciousness.On what basis one says that ahimsa as a policy dies not exist in other ways if life. How does one Say that every thing should be equal to that of the other in life. If life is to be lived by e very moving and stationary thing in the same way as each other where is the need for vimukti. One has to simply stand and eat to live with such rules and there will be no I individual seeking of or for anything .
ReplyDeleteThe great humanist that Buddha was, and great thinker and rationalist that he was, he rejected God as a concept and demanded that individual take responsibility for his/her own actions. He was Karmayogi, and he was not selfish, hence shared his insights in local language/s, quite unlike in Hinduism, Sanskrit which was made into 'deva bhasha' and only was used by a small privileged section of society, so that others don't understand it.
ReplyDeleteHow many Hindu's understand the mantras recited in their own marriage?
And how many 'gurus', ask the listener or audience to question what was said by them? Only Buddha did. No religion has the moral strength.
Even before Fraternity, or brotherhood popularised by the French revolution he looked at every living being with love and compassion. Even before Jesus Christ was born!
What is it I say, of in an English dialogue there should be some etiquette to express I English script!
ReplyDeleteWhat is it I say, of in an English dialogue there should be some etiquette to express I English script!
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