मंदिर अंधेरेमे ही नहीं पड़े है वे अँधेरे की सुरक्षा स्थल
है। आस्था के नाम सब तरह के पाप वहां चलते है। विश्वास के नीछे सब तरह का
झूठ चलता है। धर्म पाखण्ड है क्योकि
शुरुवात में ही चूक हो जाती है। क्योकि
पहले कदम पर ही तुम कमजोर पड जाते हो। तुम्हारा विश्वास तुम्हे पार न ले जा सकेगा.
इसीलिए बुध्द ने कहा तोडो विश्वास, छोडो विश्वास.सब धारणाए गिरा देनी है। संदेह की
अग्नि में उतरना है। दुस्साहसी चाहिए, खोजी चाहिए, अन्वेषक चाहिए, चुनौती स्वीकार
करने का साहस निर्माण होना चाहिए.
बुध्द कहते है, आश्वासन कोई
भी नहीं है क्योकि कोण तुम्हे आश्वासन देगा?। यहाँ कोई भी नहीं है जो तुम्हारा हाथ
पकडे। अकेले ही जाना है मरते वक्त तक।
बुध्द ने कहा अप्प दीप भव! अपने ही दीए बनो। मै मरा तो रो मत। मै कोण हू? मै आपको ज्यादा से ज्यादा दिशा दे सकता हू। चलना तुम्हे है। मै रहू तो भी चलना तुम्हे है, अगर न रहू तो भी
चलना तुम्हे है। झुको मत, सहारा लेना मत, क्योकि सब सहारे अंत:ता लंगड़ा बना देते है। सब सहारे
तुम्हे अंधा बना देते है। सहारे धीर धीरे तुम्हे कमजोर कर देते है। बैसाखिया धीर
धीरे तुम्हारे पैरों की परिपूर्ति कर देती है। फिर तुम पैरों की फ़िक्र ही छोड़ देते हो।
बुध्द कहते है, संदेह करो, बुध्द का धर्म वैज्ञानिक है।
संदेह विज्ञान प्राथमिक चरण है। इसीलिए भविष्य में जैसे जैसे लोकमानस वैज्ञानिक
होता जाएगा, वैसे वैसे समय बुध्द के अनुकूल होता जाएगा। जैसे जैसे लोग सोचने और विचारने की गहनता में
उतरेंगे और उधार और बासे विश्वास न करेंगे, हर किसी बात को मान लेने को राजी न
होंगे, बगावत बढ़ेगी, लोग हिम्मती होंगे, विद्रोही होंगे, वैसे वैसे बुध्द की बात लोगो के करीब आने लगेगी।
जगत में बुध्द का आदर बढ़ रहा है। जो भी विचारक है, चिन्तक है, वैज्ञानिक है, उनके
मन में बुध्द का आदर रोज बढ़ रहा है। बुध्द बिना लड़े जित रहे है। क्योकि बुध्द कहते है, हम तुमसे मानने को नहीं
कहते, खोजने को कहते है। जब खोज लोंगे तो मानेंगे, बिना खोजे कैसे मान लोंगे. यह विज्ञान का सूत्र है।
सत्य इतना सस्ता नहीं है, की वह बिना खोजे मिल जाए। सत्य
कोई संपति नहीं है, जैसे पिता की
वसीयत मरने के बाद पुत्र को मिल जाती है। बुद्ध
कहते है, सत्य को खोजना पड़ेगा.
भ्रम जाल तथा माया को भुलाकर उसे ढूंढना होगा और तुम्हारे भीतर भी कमजोरिया बहुत है। थक जाते तो कही भी भरोसा करके
रुक सकते हो, किसी भी मंदिर के सामने, थके हारे सर झुका सकते हो, इसीलिए नहीं की
तुम्हे कोई जगह मिल गयी, जहा सर झुकाने का
मुकाम आ गया था, बस सिर्फ इसीलिए की अब
तुम थक गए, अब और नहीं खोजा जाता. बुध्द तुम्हे कोई जगह नहीं देते, तुम्हारे कमजोरी
के लिए वह कोई जगा नहीं होती। बुध्द कहते
है, ज्ञान तो मिलाता है, आत्म परिष्कार से, शास्त्र से नहीं, सत्य कोई धारना नहीं
है। सत्य कोई सिध्दांत नहीं है। सत्य तो जीवन का निखार है। सत्य तो ऐसा है, जैसे
सोने को कोई आग में डालता है तो निखरता है, जलाता है, पिघलता है, तड़पाता है। व्यर्थ जल जाता है, सार्थक बचाता है। सत्य तो तुममे है, कूड़े करकट में दबा है और
जबतक तुम आग से न गुजरो, तुम उस सत्य को कैसे खोज पाओगे.?
बुध्द कहते है, जल्दी मत करना भरोसे करने की, भरोसा तभी
करना जब संदेह करने की जगह ही न रह जाए, लेकिन दूसरे धर्म संदेह के विपरीत केवल भरोसा करनेकी सलाह
देते है। संदेह के
विपरीत श्रध्दा करनेकी सलाह देते है। लेकिन बुध्द संदेह करने की पूरी छूट देते है। इतना
संदेह करो की, आखिर में तुम्हारा संदेह नष्ट हो जाए और केवल परिणाम बच जाए, जिसे
तुम ढूढ रहे हो। बुध्द कहते है, दबे हुए सड़े को बाहर निकालो, उससे
छुटकारा पाने का एक ही उपाय है, उसे रोशनी में लाओ।
बुध्द ने संदेह को जन्म दिया है। बुध्द का युग कभी भी
बुद्धिवादी नहीं था। केवल बुध्द ही
बुध्दिवादी थे। उन्होंने लंबे और कठिन
मार्ग से यात्रा की थी। शार्टकट मार्ग की कोइ गुंजाइश नहीं थी। तुम जिसे श्रध्दा मानते हो, वह शार्टकट का
रास्ता है। तुम बिना गए, बिना कही पहुचे, बिना कुछ किये श्रध्दा कर लेते हो। ऐसी श्रध्दा नपुसकता के
सिवा कुछ नहीं है। तुम्हारे शास्त्र लिखते है, नास्तिकोकी बाते मत सुनना, नास्तिक
कुछ कहे तो कान में उंगलिया डाल देना। यह
तो भयभितता है। डरपोकता के सिवा कुछ नहीं
है। ऐसे धर्म के शास्त्र कमजोरी सिखाते है, जो आस्था इतनी डरपोक है की नास्तिक की
बात सुनाने से कापती हो। इससे तो नास्तिक
बेहतर है, कम से कम उनके
शास्त्र में कही नहीं लिखा की आस्तिक की बात सुनने ने से डरना है। नास्तिक कभी
डरता नहीं है, लेकिन आस्तिक हमेशा
डरते है।
बुध्द ने संदेह को जन्म दिया है, संदेह करते करते तूम संदेह
से मुक्ति पा लेते हो। जहा संदेह खत्म
होता है वहा सूरज उगता है। परमात्मा असहाय अवस्था की पुकार होती है। जिसको तुमने
झुकना समझा है, वह कही तुम्हारे कांपते और भयभीत पैरों की कमजोरी तो नहीं है। जिसको
तुमने समर्पण समझा है, वह तुम्हारी कायरता तो नहीं?.
बुध्द ने तुमसे परमात्मा नहीं छिना, उन्होंने तुमसे
तुम्हारी बेचारगी छिनी है। बुध्द ने तुमसे मंदिर नहीं छीने, तुम्हारे कमजोरी के
शरणस्थल छीने है। बुध्द ने कहा, तुम्हे खुद ही
चलना है, बुध्द ने तुम्हारे पैरों को सदियों सदियों के बाद फिर से खून दिया है। तुम्हे
अपने पैरों पर खड़े होने की हिम्मत दी है। बुध्द
उसी को सदधर्म कहते है, जो तुम्हे तुम्हारे भीतर छिपे हुए सत्य से परिचित कराए। झूठी
आस्थाओ में नहीं, धारानाओ में नहीं, शास्त्रों में नहीं, व्यर्थ के शब्दजालो में
नहीं।
बुध्द ने आत्मा के स्वरूप को शून्य कहा है। उन्होंने आत्मा
शब्द में खतरा देखा. क्योकि उन्हें लगा तुम किसी चीज के तलाश में हो, जो भीतर रखी है। जब तुम कहते हो तुम्हारे भीतर आत्मा है,
जैसे की तुम्हारे घर में कुर्सी रखी हो, तुम्हारे भीतर आत्मा रखी है, आत्मा कोई
वस्तु है की गए भीतर और पा गए। बुध्द ने आत्मा शब्द का शब्दप्रयोग नहीं किया क्योकि
आत्मा से जडता का पता लगता है। आत्मा शब्द का मतलब यह हुवा की कुछ तुम्हारे भीतर
ठहरा हुवा है, रुका हुवा है, कुछ तुम्हारे भीतर मौजूद है। तो जो मौजूद ही ही है, वह जड है।
बुध्द ने कहा था, तुम ही तुम्हारे शास्ता हो, तूम ही
तुम्हारे गुरु हो, तुम ही तुम्हारे शास्त्र
हो और तुम्हारे चैतन्य के शिवाय और कोई नहीं है।